Thursday, October 9, 2025

कस्तूरी

वो सुगंधित, मनमोहक सी, वो थी दुर्लभ, कीमती

हर मर्ज की दवा थी वो, उसे इत्र कहूं या औषधि ।

कस्तूरी जिसका नाम था, वो करती सबसे प्रीति थी।

मेरे लिए अनमोल थी बहुत, माँ  मेरी बेशकीमती।।


जिस कस्तूरी की चाहत में, मृग घूमे पर्वत वन में।

नासमझ है बेचारा, ना खोजे अपने अंतर्मन में ।।

मेरे पुण्य कर्म होंगे कि, वो कस्तूरी मिली मुझे मेरे जीवन में ।

ऐसे महकाया है मुझको की , बस गई मेरे हर स्पंदन में।।


सीधी सादी भोली भाली, वो ममता की खान थी।

कोई आंच न हमको छूने पाए, हम सबमें बसती उसकी जान थी।

कोमल हृदय वाली थी वो , भावुक मगर अभिमानी थी

वो मेरे मन मंदिर की मूरत , वो मेरी भगवान थी।।


जब हम साथ में बातें करते, किस्से कहानियां बड़ा सुनाती थीं।

समय का कभी पता न चलता, न जाने कब रात हो जाती थी।

 हम सीखें उनके अनुभव से , शायद यही उनकी चाह थी।

हर बात में नई सीख मिलती वो हमको दृढ़ बनाती थी।।


गलती से भी जो कह दिया , मुझे ये खाने का मन है मां।

अगला पल वो जब आता, जब सामने वो मनपसंद व्यंजन होता था ।

अकेली लगी रहती रसोई में, और हम सब गप्पे मारा करते ।

हम सबको खुश देखकर उसके नैना कभी न थकते ।।


जब हम घर देर से आते, उसको गली में खड़ा ही पाते

दो चार बात सुनाती हमको, पापा गुस्सा हैं बताती हमको।

हम डर से छिप जाया करते, फिर खुद ही आके बचाती हमको।

एक हाथ से कड़ी चेतावनी,दूजे से कौर खिलाती हमको।।


जब जब हम पर विपत्ति पड़ी, वो आके हुई हमारे साथ खड़ी

हर मुश्किल में हमें थामे रखा , हर परिस्थिति में वो अडिग रही।।

हमको विपदा घेर न पाए, हम मुश्किल में न घबराए

इसके लिए मां मेरी ने , न जाने क्या क्या मिन्नत , जाने कितने भोग लगाए ।।


हर मंदिर के मारे फेरे , हर तीर्थ और चारों धाम करे।

खुद को सबसे पीछे रखा ,सारे सुख हम पर वार दिए।

जब उन पर संकट आया, हमने भी सारे जतन किए 

उनकी तरह हमने भी , ईश्वर से कितने जिरह किए

पर विफल रहे प्रयत्न सभी, सारे मंत्र बेकार गए

जो सोचा नहीं सपने में भी न जाने कैसे हो गया?

ऐसी मां को हमसे ईश्वर ने, ना जाने क्यों दूर 

किया, न जाने क्यों दूर किया?


9.10.25